मेरी पूँजीवादी सोच पर एक शोध

By on October 25, 2014, in Poem

मैंने अपने पालतू बाघ को
एक पहर भूखा रखा
फिर उसके पिंजरे के पास
अपनी थाली ले कर खाने लगी
वह गरजा, इधर-उधर झपटा
लगा पिंजरा तोड़ डालेगा
मैं डर गयी, उसे खाना दिलवाया,
अब वह शांत था

मैंने अपने पालतू बिल्ली को
पूरा एक दिन भूखा रखा
फिर मैं उसके पास बैठ
अपनी थाली ले कर खाने लगी
उसने पूँछ फुलाया फिर पूरा शरीर
मेरी ओर झपटी, मैं डर गयी
मेरी थाली से मछली का टुकड़ा
मुँह में दबा कर वह चलती बनी

मैंने अपने पालतू कुत्ते को
एक दिन भूखा रखा
फिर मैं अपने लिए
थाली परोस उसके पास बैठ खाने लगी
उसने कातर दृष्टि से कुछ पल
मुझे खाते हुए देखा
फिर अपनी टांगों के बीच
माथा टेक आँखे मूँद ली

मैंने उसे दूसरे दिन भी भूखा रखा
उसके पास बैठ, मेरे पहला ग्रास लेते ही
वह गुर्राया, मेरी ओर झपटा
मैं डर कर भागी
उसने बेफिक्र मेरी थाली का खाना खाया

मैंने अपने पालतू भेड़ को
इसी तरह एक-एक कर
तीन दिन भूखा रखा
वह कातर दृष्टि से मुझे देखता ही गया
न वह झपटा, न वह गुर्राया
भूख से निढाल हो
आखिरकार गिर पड़ा

मैंने अपने भृत्य को
एक-एक कर तीन दिन भूखा रखा
उसके द्वारा परोसी गयी
थाली में खाना खाया
वह हर रोज मुझे देखता ही गया
मैं अवाक हो कर जब उसकी ओर देखा
उसने पूछा हुकुम साहिबा!

मेरे भेड़ और भृत्य में समानता थी
और एक विषमता भी
भेड़ में सामर्थ नहीं था
और भृत्य में साहस

कुमुद