Category: Poem

एक जन्म की जड़

ऊपरी तल्ले के अदब-कायदे इन दिनों मेरा प्रत्याख्यान करने लगे दीवार में टंगी प्रख्यात शिल्पी का पोट्रेट, मेरा प्रिय आर्किड या एक्वेरियम में तैरती रंग-बिरंगी मछलियाँ

तुम्हें प्यार है मुझसे

लब्जों में मेरी खूबसूरती बयाँ ना करो तुम तुम्हारी प्यार भरी नजरों में यूँ ही झलक जाता है। नजराने मेरी चाँद-सितारे तोड़ा ना करो तुम

मेरा समाज सेवी चिंतन

मैंनें सोचा बियालिस बसंत का आनंद तो मैं ले ही चूकी हूँ क्यों न बाँट दूँ एक बसंत उन झोपड़-पट्टियों में जहाँ बसंत आता ही

फिजाँ का रंग

पिज़्ज़ा या सैंडविच नहीं मुझे एक कटोरा बासी भात दे दो नमक-मिर्च के संग मैं भूख का स्वाद चख लूँगी इटालियन सिल्क नहीं मुझे एक तार

मैंने युद्ध देखा है

मैंने युद्ध देखा है कत्लेआम मैंने आसमान से छिटकते बमों की विभीषिका देखी है मैंने धू-धू कर जलती आग में घर-बार-बस्तियों को राख होते देखा

मैं

तपती धूप में उनके पसीना बहाने से ही मिट्टी काँपने लगेगी घनघोर वर्षा माथे पे लिये उनके हल पकड़ने से ही फसल फलेगी दिगन्त में

मैं कारावास में

उनकी निजी अदालत के कटघरे में खड़ा मैं साक्षी-सबूत सब निरंकुश कह गए दिन-यापन की इतिकथा मैं जन्मजात मुजरिम अभिमानी हृदय में जमाट यंत्रणाएँ हाथ-पैर पसारने

गीता कलयुगी

(1) अस्त्र भेष बदलता है तलवार बन जाती है मिसाइल अश्वमेधी अहंकार लिये काले घोड़े पर सवार रत्नाकर सूट पहन कर बाल्मीकि बनने का ढोंग

चार चक्के की सवारी

मैं अभाव से बेहाल जी रहा था चाह थी जीवन को रर्इसी से जीने की आस थी , सपना था मेरे सपनों को चार-चाँद लगाने

आशिक

तर्ज-ए-ताजमहल एक यादगार बनाने की ख्वाहिश थी ना जुदार्इ थी ना जमीन थी ना यमुना नदी किराये के एक कमरे में चार बच्चों के संग

मेरी पूँजीवादी सोच पर एक शोध

मैंने अपने पालतू बाघ को एक पहर भूखा रखा फिर उसके पिंजरे के पास अपनी थाली ले कर खाने लगी वह गरजा, इधर-उधर झपटा लगा

विडम्बना

वह बालिका थी दलाल की दी हुर्इ साड़ी तन पे लपेटते ही किशोरी बन गयी आँगन में इधर-उधर खड़े उसके छोटे-छोटे पाँच-छ: भार्इ-बहन टुकुर-टुकुर उसे

भूख

आज के कवि सम्मेलन में एक नयापन था कविता पाठ से पहले हर कवि को कविता के विषय पर व्याख्यान देना था किसी ने नस्लवाद,

मैं डाक्टरेट

जिल्लत से जीने वाले हर शख्स को दूर से देख मैं उसकी किस्मत समझी दु:ख-दर्द से रोने वाले को दूर से देख मैं फितरत समझी।

मैं क्या चाहती हूँ

मैं विनाश चाहती हूँ सर्वव्यापी विस्फोरण मैं युद्ध चाहती हूँ एक और महायुद्ध! मैं चन्द्रयान नहीं मिसार्इल चाहती हूँ महाकाश का रहस्य नहीं धधकता आकाश चाहती

रविवार का हाट

बाद में संवाद देंगे यह संवाद दे कर चले जाते हैं वे लोग भद्रता के वेश में मनुष्य के मुखौटाधारी मानुष जले हुए तेल के समोसे से

बंदिशों के घेरे में

मैं नन्ही थी, प्यारी थी सबकी बड़ी दुलारी थी मुझे स्नेह मिला, ममता मिली प्यार की फुलझडि़याँ मिली मैं बढ़ती गयी और सिमटती गयी शर्म-हया