छि!

By on October 24, 2014, in Laghu Katha

अपने घर के फस्र्ट फ्लोर के बाॅलकनी में खड़ी कुछ परेशान कुछ लज्जित सी तमाशबिनों को देख रही थी मैं। शहर के एक छोर में बसे बैंक कॅलोनी के शांत वातावरण में आज भुचाल सा आया हुआ है। मेरे घर के ठीक सामने पीपल के पेड़ के चारो ओर बने चबुतरे को सुबह से ही एक बिच्छिप्त युवती ने अपने अन्दाज में कब्जा कर रखा है। कभी चबुतरे पर बैठती, कभी सो जाती और कभी खड़ी होकर विचित्र अंग भंगिमा करने लगती।

ऐसे तो राँची शहर में पागलों का इधर उधर भटकना आम बात है। कभी कभी एक आध इस कॅलोनी में भी आ जाते हैं और अपने आप चले भी जाते हैं। कोइ ध्यान भी नहीं देता है। पर इस युवती ने तो बवंडर मचा रखा है। एक तो पूर्ण यौवन उपर से निर्वस्त्रा। वह गर्भवती थी। उसके पास कपड़े का एक चिथड़ा तो है पर उसे उसने उभरे हुए पेट पर ही लपेट रखा है, बाकी अंगों के नंगेपन से बेपरवाह। कभी कपड़ा खुल कर गिर भी जाता तो उसे उठा कर फिर से पेट पर लपेट ले रही थी, मानों उसकी सारी शर्म हया पेट के उभार में ही समायी हुइ थी।

बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की भीड़ लग गयी थी उसके चारो ओर। बच्चों की आँखों में जितना कौतुहल था, किशोर से लेकर बूढ़े तक के मर्दों की आँखों में उतना ही लालच। कोइ तिरछी नजरों से युवती के नग्न शरीर का लेहन कर रहा था तो कोइ फटी नजरों से मानों डकार रहा था। कभी कभी अपने बच्चे को वहां से ले जाने के लिए आयी औरतें भी, एक उड़ती दृष्टि से उस पगली को देख ले रहीं थीं।

मैंनें टेढ़ी नजर से बगल में खड़े अपने पति शेखर को देखा। उसकी टकटकी में भी शायद लालच था। तभी तो मेरी दृष्टि को भाँप कर वह तुरंत आँखें चुराने लगा।

पूरे दिन तकरीबन एक ही नजारा था। पगली निर्विकार थी और मर्दों का हुजुम बढ़ता ही जा रहा था। शाम होते होते पगली भुख प्यास से निढ़ाल होने लगी। अकस्मात मुझे ख्याल आया सुबह से उसने कुछ भी खाया-पीया नहीं।
कुछ झिझक के साथ मैं घर में रखे ब्रेड और एक बोतल पानी लेकर भीड़ को धकेल-धुकेल कर आखिरकार पगली तक पहुँच ही गयी। मर्दों की लालायित नजरों के बीच एक बार तो मुझे लगा, कपड़े पहने हुए भी मैं निर्वस्त्रा खड़ी हूँ। मेरे हाथ में पावरोटी देखते ही पगली झपट पड़ी। भारी मन से मैं वापस भाग आई।

घर में कदम रखते ही शेखर गुस्से से उबल पड़ा, ‘‘उतने मर्दों के सामने एक नंगी औरत के बगल में खड़ी होते तुम्हें शर्म नहीं आयी?’’

मैं अचंभित खड़ी रह गयी। लज्जित और दुखी तो थी ही, गुस्सा भी आ रहा था।

पर व्यंग मुस्कान अपने आप मेरे होठों को छू गयी ‘‘शर्म तो आयी! पर वह औरत तो मुझे नंगी नहीं दिखी, नंगे तो सारे…छिः!

कुमुद