कुत्ता काटता भी है

By on October 24, 2014, in Laghu Katha

भले ही अपने बेटे-बहू, पोते-पोती का गुणगान ना करे, पर अपने-अपने कुत्ते का महिमागान गाते बिल्कुल भी थकते नहीं, ऐसे बहुत सारे महाशया तथा महाशयां को जानता हूँ मैं।

पर मेरे पड़ोसी शर्माजी का क्या कहना-बल्ले!बल्ले!

एक शाम कुत्ते के संग उन्हें गली में टहलते देख,मैंनें पूछ क्या लिया-‘‘कुत्ते को पॉटी कराने निकले हैं क्या?’’ मेरी तो शामत ही आ गयी!

‘‘-मुँह संभालिये विवेकजी, खबरदार जो आइंदा इसे कुत्ता कहा। इसे नाम से पुकारा किजिए! इसका गुडनेम भानुप्रिया और निकनेम लिलि है। और अच्छी तरह जान लिजिए, लिलि इधर उधर ऐसा-वैसा कुछ भी नहीं करती है।’’

शर्माजी के कथन में ‘‘ऐस-वैसा’’ का तात्पर्य मेरी समझ से परे था। मैंनें उनकी कुतिया को बदचलन तो कतई नहीं कहा था। खैर…!

शर्माजी ने आगे कहा -“लिलि वाकायदा टॉयलेट में पॉटी करती है।”

मेरी भृकुटि का तनना स्वाभाविक ही था। वे मुस्कुराये, आश्चर्य हो रहा है न? वह फ्लश भी दबाना कभी नहीं भुलती। विश्वास ना हो तो कभी मेरे घर आकर देख लिजिएगा। कुत्ते को अगर ठीक से तालीम दी जाय, तो वह ऐसा हर कुछ कर सकता है, जो मनुष्य कर सकता है।

मैंनें सोचा पूछुँ, ‘‘ तब तो धो भी लेती ही होगी?’’ पर हिम्मत नहीं जुटा पाया।

शर्माजी का बखान जारी था- आप तो जानते ही होंगे, मैं मंदिर जाकर बजरंगबली के दर्शन तथा पूजा- अर्चना किए बिना अन्नजल ग्रहण नहीं करता।

यह मेरे जानने की बात नहीं थी। फिर भी मैंनें हामी में सर हिलाना ही ठीक समझा।

शर्माजी ने फिर कहा- ‘‘ मैं कुछ दिनों से देख रहा हूँ, लिलि भी अपनी सुबह की बिस्किट नहीं खाती। मंदिर से वापस आकर ही खाती है।

मैंनें अवाक होकर पुछा,‘‘ वह मंदिर भी जाती है?’’

‘‘- मंदिर के भीतर तो नहीं जाती। पंडितजी के कहने पर मैंनें मना कर रखा है। पर सीढ़ी में उसकी बैठने की मुद्रा को यदि आप देख लें, तो आपको मानना ही पड़ेगा, वह अपने तरीके से पूजा में मगन है।

एक दिन शर्माजी ने अपनी बॉलकनी से चिल्लाकर कहा,‘‘ विवेकजी, आज का अखबार यदि आप पढ़ चुके हों तो मुझे भी एक बार पढ़ने दें। पता नहीं क्यों आज हमारा अखबार नहीं आया।

मैंनें कहा किसी को भेजते तो…!

‘‘- मैं लिलि को भेज रहा हूँ।

मैंनें दरवाजा खोलकर देखा, सामने के दोनो पैर आगे की ओर बिछाकर लिलि बैठी थी। शायद इस मुद्रा में बैठना उसे भाता होगा। मैं मुस्कुराया। मेरे द्वारा अखबार उसके सामने रखते ही, मुँह में दबाकर वह दौड़ पड़ी। मुझे उसकी बुद्धिमत्ता कि दाद देनी ही पड़ी।

फिर एक दिन मैंनें शर्माजी को तमतमाता चेहरा लिये जाते देख, टोका।-‘‘ इतनी हड़बड़ी में कहाँ जा रहें हैं शर्माजी?’’

शर्माजी ने अजीब सा मुँह बनाते हुए झुंझलाकर कहा -‘‘ क्या बोलूँ भई, रेबीज का इंजेक्शन लेने जा रहा हूँ।’’

मैंनें आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘‘ कैसे? किस कुत्ते ने काट लिया भई?’’

‘‘- वही जिसे मैं प्यार से पालपोस रहा था। कुतिया आखिर कुतिया ही निकली

स्साली! नहलाते वक्त उसका पैर थोड़ा ज्यादा ही मुड क्या़ गया, तुरन्त काट लिया हरामजादी ने!’’

ना चाहकर भी मुस्कान मेरे होठों को छू ही गयी। मैंनें मन ही मन सोचा, शर्माजी उस बेचारी का क्या कसुर! आप ही उसकी नस्ल बदलने पर तुले हुए थे। ये उसे रास नहीं आया। काटकर उसने आपको दर्शा देना चाहा कि वह ईंसान नहीं, कुत्ता है।

कुमुद