मैं धृतराष्ट्र नहीं बन सकता
By Salaam India on October 24, 2014, in Laghu Kathaबुरी संगत में पड़कर पंडित गिरधर मिश्रा का एकमात्र पुत्र सुनील बिगड़ता जा रहा था। पिता की डाँट-डपट, माँ के अति दुलार तले बेअसर होती जा रही थी। इस बात से पंडित जी नाराज तथा चिंतित तो थे। पर पत्नी के आगे उनकी एक नहीं चलती थी।
नवीं कक्षा में सुनील गणित में फेल होने के कारण अनुत्तीर्ण हो गया था। पंडित जी चाहते तो पास करा सकते थे। स्कूल में गणित के शिक्षक वे खुद हैं। और कॉपी भी उन्होंने ही जाँची थी। पर शिक्षक धर्म उनके लिए सर्वोपरि था।
इस बात से नाराज होकर सुनील घर से भाग गया। पत्नी के अनगिनत तिरस्कार के साथ-साथ सहकर्मी शिक्षकों के उलाहनें भी मिश्रा जी को झेलने पड़े। अंग्रेजी के शिक्षक ने कहा, ‘‘खुद को इतना महान साबित करने में क्यों तुले हैं? सुनील तो अंग्रेजी में भी फेल था। हमने आपका बेटा जानकर बारह नम्बर बढ़ाकर पास करा दिया। आपको तो तीन ही बढ़ाने थे।’’ विज्ञान के शिक्षक ने भी तकरीबन यही बात कही।
बेटे के घर छोड़ने पर दुःखी तो थे पंडित जी। पर ढूंढ़ने जाने का विचार उनके मन में कतई नहीं आया। उन्होंने सोच लिया था दुष्ट गाय से तो शून्य खटाल ही भली। धर्मपत्नी के तीक्ष्ण बाणों को वे फिर भी झेल रहे थे। पर उसके अन्तिम बाण में माँ-बेटे की साँठ-गाँठ स्पष्ट थी, जिससें उनका चित्त घायल हो गया।
“- अपने बेटे को तीन नम्बर देने में, आपका खून सूख रहा था न! अब हेडमास्टर को कहकर उसे पास करवाइय, तभी वह घर लौटेगा। मुझे हर कीमत पर बेटा चाहिये।”
मिश्रा जी ने मन ही मन कहा- ‘‘तुमने भले ही आँख पर पट्टी बान्ध ली है, पर मैं धृतराष्ट्र नहीं बन सकता।’’
कुमुद