लगनु की उमीद

By on October 24, 2014, in Laghu Katha

सुरज का पढ़ना लिखना शुरू में पसंद नहीं था लगनु को। इस बस्ती में पढ़ने लिखने का चलन कभी से भी नही है। बच्चे थोड़ा बड़े होते ही रद्दी चुनने के काम में लग जाते हैं। आठ नौ साल की होते ही लड़कियां माँ के संग बाबुओं की कॅलोनी की ओर दाई का काम करने चल पड़ती है और लड़के साइकिल स्कुटर मरम्मत की दुकान या चाय नाश्ते के ढाबों में काम की तलाश में। कोई ऑटो रिक्शा का खलासी बनता तो कोई सिनेमाहॉल में टिकट ब्लेकर।

लगनु की जोरू के दिमाग में कौन सा कीड़ा घुसा था पता नहीं! उसने ठान लिया था, सुरज को स्कुल भेजेगी। भले ही कभी कभार ज्यादा चुलैया पीने के बाद लगनु शेर बनता है-पर है तो वह जोरू के आगे चुहा ही।

देखते देखते सुरज पाँचवी कक्षा में आ गया है। अब लगनु भी खुश है उसकी पढ़ाइ लिखाइ से। बस कभी कभी उसके उटपटांग प्रश्नों का ठीकठाक जबाब नहीं दे पाने से मायुस हो जाता है बेचारा।

उस दिन भी एैसा ही हुआ। सुरज के हाथ में एक मुड़ा तुड़ा अखबार का टुकड़ा था। अखबार से नजर उठाए बिना ही उसने पुछा, ‘ बाबा ये एक एकड़ कितना होता है?

लगनु को ही कहाँ पता था। बेचारे ने सिर खुजलाते हुए कहा, ‘ वो जो सरकारी बबुअन हमीन के नोटिस दिये आयल रहे, वो मन कहत रहे हमीन कर इ बस्ती एक एकड़ जमीन को दखल कर बसल है। इ जगा पर नगर निगम मॅाल बनवाई।’

आश्चर्य से सुरज की आँखें फैल जाती हैं, ‘एक एकड़ में हमारी इतनी सारी झोपडि़याँ बसी हैं बाबा! देखो ना, इस अखबार में लिखा है एक मंत्री ने पैंसठ एकड़ सरकारी जमीन हड़प ली।’ कुछ सोच में पड़ जाता है सुरज। शायद गुणा भागा में उलझ जाता है – एक एकड़ में अठहत्तर झोपडि़याँ तो, पैंसठ एकड़ में…?

तीनचार दिनों बाद एक शाम लगनु ने बस्ती के पास आकर देखा , झोपडि़यों को ढहा कर नगर निगम का बुलडोजर जा चुका था। धु धु शुन्यता लिए मैदान के एक कोने में ईंट मिट्टी और खपरों का ढेर था। उस स्तुप में बस्ती के लोग अपने घर के लेदरा, बरतन, डिब्बा बोतल… ढुंढने में लगे थे। तभी सुरज हाँफते हुए आया, ‘ देखो ना बाबा उनलोगों ने बस्ती को ढहा दिया।…. एक एकड़ कितना बड़ा होता है ना बाबा?’

एक दीर्घ स्वांस लगनु की छाती को निचोड़ कर बाहर निकल आई। इस हाहाकरमय दीर्घ स्वांस की भी लम्बाई चैड़ाई होती है। लगनु को उमीद है, आज नहीं भी तो, एक दिन उसका सुरज इसे जरूर नाप कर दुनिया को बता पाएगा।

कुमुद