एक जन्म की जड़

By on October 25, 2014, in Best Picks, Poem

ऊपरी तल्ले के अदब-कायदे इन दिनों मेरा
प्रत्याख्यान करने लगे
दीवार में टंगी प्रख्यात शिल्पी का पोट्रेट, मेरा प्रिय आर्किड
या एक्वेरियम में तैरती रंग-बिरंगी मछलियाँ
बाल्यकाल की कुछ आचरणिक असभ्यता, अवचेतन में
मेरे मस्तिष्क के निर्लिप्त अंश में सक्रिय हो उठती है
मन चाहता है गदले तालाब में उछल-उछल कर नहाऊँ
नदी के बालूचर पर चलता ही जाऊँ, दूर दिगंत तक,
जहाँ मिटटी की सौंधी गंध लिये, हवा अनन्त बहती है
सरसों खेत की हल्दिमा बदन पर लेप कर,
समुद्र-रंगे बादलों के नीचे खड़े हो कर,
झरझर वृष्टि में भींग जाने को मन चाहता है
निहायत अपने लोग कहते हैं, यह भी एक वार्द्धक्य जनित
व्याधि है

जीवन का बहुलांश तो काट लिया इन मधुमक्खियों
के छत्ते में
स्वयंक्रीय साहेबाना लिये, अन्य एक भौतिक पृथ्वी का
यापन-विलास,
अब, एक बार अन्तत: शुभ्र मुलायम बिस्तर पर
तुम्हें सोते हुए छोड़ कर,
इक्कीस तल्ले की सीढि़याँ तोड़ कर उतर जाना चाहता हूँ
नीचे की ओर
मिट्टी मुझे हाथ लहरा कर पुकारती है, शंखचील के
पथ दिखा देने से,
दक्षिणी हवा मुझे उंगली पकड़ कर खींच ले जाएगी

एक बार, अन्तत: एक बार मुझे जाना है वहाँ
जहाँ आकाश-प्रदीप जलता नहीं
विस्तृत अंधकार में शायद मैं ठोकर खा कर गिर पड़ूँ
मिट्टी मुझे गोद में उठा लेगी-ह्रदय में जमी यंत्रणाएँ
मुझे रूला देंगी
आँसुओं में भीग जाएगी माँ-मिट्टी की छाती
मेरा जीर्ण शरीर एक नया उल्लास लिये जाग उठेगा,
मैं बाँस की सीढ़ी तड़तड़ चढ़ कर, उठ जाऊँगा
आकाश की ओर
बिछिन्न अंधकार को छान कर खोज लाऊँगा आलोक गोला
उस ब्रह्ममुहूर्त में,पंछियों के कलरव से जाग जाएगें
वे सब मानुष, मिट्टी छूकर सोये हुये थे जो
मैं अनाविल उजाले में चलता जाऊँगा
कोलाहल-मुखर बस्ती के संकीर्ण पथ से हो कर
वे लोग मुझे नहीं पहचानेंगे, इस पथ पर रोज चल कर या
साइकिल चढ़ कर आता-जाता था
ऐसे किसी किशोर या युवक की बात, शायद उन्हें याद नहीं
वे अवाक –दृष्टि से देखेंगे, सौम्यदर्शन एक मानुष,
बेशकिमती जिसका परिधान
रीढ़ झुका नगरपालिका के टाइमकल से,
करतल बिछा कर पानी पीता है आकंठ,
प्यास मानो बुझती ही नहीं

अन्तत: मैं स्खलित कदमों से आवर्जनामय पथ पर चलते हुए
बस्ती की सीमा लाँघ कर नहर की ओर जाऊँगा
अन्तत: एक बार फिर मुझे उतर जाना होगा
कमर तक पानी में

उसके बाद दिगंत प्रसारित खेतों को पार कर पल्लिपथ
पथ के किनारे वयोवृद्ध सेमल पेड़, अनन्तकाल से खड़ा
मै धूल भरे पथ से चलता जाऊँगा, गाँव के
नैर्ऋतकोण के अंतिम छोर में
छोटा सा आँगन, एक झोपड़ी-फुस का छाजन
चटार्इ के बिछावन पर खसरा अक्रान्त एक मुमूर्षु बालक
सिरहाने चिरंतनी मा, मा के देह से आती मा मा गंध
तालपंखा हाथ में लिये उघड़ा बदन बाबा
छाग शिशु की तरह कातर आँखों से ताकते हुए
छोटे-छोटे भार्इ-बहन
और दीये की टिमटिमाती रोशनी में ऊँघती हुर्इ
एक विनिद्र रात

मैं मिट्टी में दबे, उस ध्वंसस्तूप के पास जा कर खड़ा होऊँगा
मेरे बाल्यसखा, सभी दौड़ कर आयेंगे
उन्हें संशयचकित देख, मैं सूट-टार्इ सब उतार फेकूँगा
ततक्षण उनकी आँखें हँसने-रोने लगेंगी
मैं उनसे कुदाल-गैंती मांग कर अक्लान्त
मिट्टी खोदता जाऊँगा
तलाशूँगा एक जन्म की जड़

बिभास सरकार