विडम्बना

By on October 25, 2014, in Poem

वह बालिका थी
दलाल की दी हुर्इ साड़ी तन पे
लपेटते ही किशोरी बन गयी
आँगन में इधर-उधर खड़े
उसके छोटे-छोटे पाँच-छ: भार्इ-बहन
टुकुर-टुकुर उसे ही देख रहे थे
मार्इ भयभीत थी
रो रही थी
हाथ में एडवांस के कुछ रूपये
और आँखों में अजीब सी लाचारी का भाव लिये
बाप खड़ा था

गाँव के चारो ओर फैला जंगल –
जहाँ वह लकड़ी चुना करती थी
टेढ़ी-मेढ़ी वे पगडंडियाँ –
जहाँ वह चला करती थी
दौड़ा करती थी
आकाश-हवा, दूर खड़ा काला पहाड़ –
जिसे वह बोंगा मानकर नमन करती थी
सभी तो उदास थे

किशोरी भी उदास थी
पर उसकी आँखो में चमक थी
मन में उमंग
वह जा रही थी दूर शहर, काम करने
भार्इ-बहन का पेट भरने
बाप-मार्इ का दु:ख बाँटने

जा रही थी झारखंड में जन्मी अल्हड़-प्रकृति
किसी अनजान शहर के –
अनजान घर का चौका-बरतन करने
या ईंट-भट्टे में, ईंट ढोने
या शायद कोर्इ बदनाम गली …

कान में सेलफोन लिये
उसके इंतजार में दलाल खड़ा था
हवा की तरंग में लज्जा का बाजार बैठा था
और शर्म से गहरी थी लाल मिट्टी

कुमुद