मैं डाक्टरेट

By on October 25, 2014, in Poem

जिल्लत से जीने वाले हर शख्स को
दूर से देख मैं उसकी किस्मत समझी
दु:ख-दर्द से रोने वाले को
दूर से देख मैं फितरत समझी।

रोटी पर झपटते मानुष को
दूर से देख मैं बर्बर समझी
तन पर कपड़ा तार तार को
दूर से देख मैं अश्लील समझी।

लाशों पर पसरे सन्नाटे को
दूर से देख मैं शांति समझी
खुन से लथपथ धरती को
दूर से देख मैं लाल-मिट्टी समझी।

इंसानी हड्डियों के ढेर को
दूर से देख मैं पर्वत-माला समझी
धू-धू कर जलती आग को
दूर से देख मैं उगता सूरज समझी।

वातानुकूलित कमरे में बैठ, मैं
हर हालात को परखी समझी
उग्रवाद पर थिसीस लिख डाली मैं
हर भूखे-नंगे को उग्रवादी समझी।

कुमुद