चार चक्के की सवारी

By on October 25, 2014, in Best Picks, Poem

मैं अभाव से बेहाल जी रहा था
चाह थी जीवन को रर्इसी से जीने की
आस थी , सपना था
मेरे सपनों को चार-चाँद लगाने वाले
शहर के नामी-गिरामी
ज्योतिषी महाराज भी थे

मैंने कतार में घंटों खड़े रह कर
उनके दर्शन पाया
भगवा-वस्त्र में रक्तिम-टीकाधारी काया देख
मेरा हृदय गदगद हो उठा
बेटे की फीस के तीन सौ रूपये
काँपते हाथों से उनके कदमों में रखा
यह उनकी दक्षिणा-रूपी फीस थी

उनकी दृष्टि मेरे ललाट पर थी
जाओ! दक्षिण हस्त की मध्यमा में
पुखराज धारण करो
शीघ्र ही तुम धनवान बनोगे
चार-चक्का वाहन द्वार पर खड़ा होगा।
मैं आल्हादित, उनके चरणो पर गिर पड़ा
मेरे हाथ में एक कार्ड थमाये
उन्होंने आँखें मूँद ली
मेरी पारी समाप्त हुर्इ

कार्ड पर ग्रहरत्न की दुकान का पता लिखा था
पुखराज की कीमत पर
मैंने बारह वर्ष पुराना स्कूटर बेच डाला
पत्नी का मंगलसूत्र भी

मैं अपेक्षा के दिन गिनता गया
शो-रूम में बड़े-बडे़ शीशों के पीछे
रंग-बिरंगी कारें थी
राह आते-जाते निहारता गया
और एक दिन टकरा गया
तेज दौड़ती एक चमचमाती कार से

मेरे द्वार पर चार-चक्का वाहन खड़ा था
वह मेरे पड़ोसी कबाड़ी की
लोहा-लक्कड़ ढोने वाली मेटाडोर थी
मैं बाँस के मचान में सो कर
चार-चक्के पर सवार हुआ
रोना-धोना था… हाय-हाय थी…
राम-नाम-सत्य था

मैं प्रेतलोक जाते जाते देख रहा था
मेरी अंतिम यात्रा ज्योतिषी महाराज के
द्वार से हो कर गुजरी
वहाँ कतार और भी लम्बी थी

कुमुद