बंदिशों के घेरे में

By on October 25, 2014, in Poem

मैं नन्ही थी, प्यारी थी
सबकी बड़ी दुलारी थी
मुझे स्नेह मिला, ममता मिली
प्यार की फुलझडि़याँ मिली
मैं बढ़ती गयी और सिमटती गयी
शर्म-हया के दायरे में
मुझे प्यार मिला, दुलार मिला
पर बंदिशों के घेरे में

मैं जवाँ हुर्इ, अंग-अंग खिला
मुझे रूप मिला, यौवन मिला
मेरे रूप को संजोया गया
मेरे यौवन को निखारा गया
परखी गयी मैं दिन पर दिन
पसंदीदों के बाजार में
मुझे रूप मिला, यौवन मिला
पर बंदिशों के घेरे में

मैं पसंद हुयी, मुझे पुरूष मिला
शहनाई बजी, मैं दुल्हन बनी
निछावर हुआ मेरा रूप-यौवन
मुझे पौरूष मिला, मैं नारी बनी
शुरू हुआ समझौतों का सिलसिला
बन्धती गयी मैं रोज दायरों में
मुझे पुरूष मिला, पौरूष मिला
पर बंदिशों के घेरे में

मुझे मान मिला गौरव मिला
ना जाने कब मैं वृद्धा बनी
पोता को गोद खिलाती
गृहस्थी की पहरेदार बनी
ना जाने कब धार्इ बनी मैं
दादी के किरदार में
मुझे मान मिला गौरव मिला
पर बंदिशों के घेरे में

मुझे स्नेह मिला ममता मिली
मुझे रूप मिला यौवन मिला
मुझे पुरूष मिला पौरूष मिला
मुझे मान मिला गौरव मिला
मैं काल के बिल्कुल पास हूँ
आज तलाश रही हूँ जीवन में
मैं क्या खोर्इ मुझे क्या मिला
इन बंदिशों के घेरे में

कुमुद