सलाम इंडिया

By on October 24, 2014, in Best Picks, Laghu Katha

सारा दिन एक मंदिर के बाहर बैठ भीख मांगता था मंगतू। और कभी बुदबुदा कर तो कभी मन ही मन गाली देता रहता था,‘‘ साले भीख देने के लिए ही जेब में अठन्नी रखते हो क्या?’’

आजकल वह सारा दिन बस्ती में मटरगश्ती करता है। कभी भीखु, बड़कु, सुगना के साथ जुआ में बैठ जाता है तो कभी सुखिया को देख पीछे से सीटी मारता रहता है। चीढ़ती है सुखिया भी,‘‘साला लुला बनेगा दुल्हा-बहरी जलाएगी चुल्हा।’’ और शाम होते ही मंगतू शहर के एक नामी ‘इंडिया रेस्टोरेन्ट’ के पास अपने टेढ़े-मेढ़े पोलियो-आक्रमित दाहिने पैर को आगे की ओर बीछा कर बैठ जाता है। ऐसे तो ज्यदातर लोग गाड़ी से उतर कर सीधे रेस्टोरेंट के शीशे के दरवाजे की ओर चल देते हैं, उसकी तरफ देखते भी नहीं। पर एक-आध की नजर पड़ ही जाती है और उस मौके को गंवाता नहीं मंगतू। ऐसे स्टाइल में गिड़गिड़ाने लगता है कि साहब हो या मेमसाहब दस-बीस, खुल्ला ना रहे तो पचास भी दे देते हैं। क्यों ना देंगे, इस रेस्टोरेन्ट में आते भी तो शहर के एक से बढ़कर एक रईश ही हैं।

दस रूपये में एक, बीस में दो, और पचास में चारपांच सलाम जरूर ठोकता है मंगतू। साथ में एक सलाम ‘इंडिया रेस्टोरेन्ट’ को भी ठोक देता है। इससे ज्यादा रूपये कभी मिले नहीं। पर मंगतू ने सोच रखा है सौ रूपये मिलने पर कम से कम  दस सलाम तो जरूर ठोकेगा। इतना तो प्रोफेशनल हो ही गया है नहीं तो रेस्टोरेन्ट के गेट पर खड़े दरबान ने उसे भगाने की कोई कम कोशिश थोड़े ही की,‘‘ भाग साला भिखमंगा, तेरी मा की… गंदी-गंदी गाालियां भी दीं।’’ मंगतू भी कम है क्या, गाली के बदले गाली ही बकता, ‘‘ तू भी तो भिखमंगा है, टीप ना मिले तो बंदर के पिछवाड़े की तरह मुंह बनाता है और मिलने पर जोर से सलाम ठोकता है…।’’

अब हार कर मंगतू के मुंह नहीं लगता दरबान। बल्कि इन दिनों तो कभी-कभार खैनी का लेन-देन भी कर लेते हैं दोनों।

आज रेस्टोरेन्ट के सामने पहुंचते ही अजीब सा मुंह बनाकर बुदबुदाया मंगतू,‘‘ ये नया दरबान कहां से आ गया, अब इससे भी लड़ना पड़ेगा। मुंह देखकर तो लगता है उससे भी बड़ा खड़ूस है साला मुच्छड़।’’ अपनी रोज वाली जगह पर बैठ कर उसे तिरछी नजरों से देखता है मंगतू। शायद आज कोई खाश पार्टी-शार्टी है। ज्यादा भीड़ के कारण गेट खोलने-बन्द करने से ही नये दरबान को फुर्सत कहां। और शायद इसीलिए ही खीट-पीट से अबतक बचा हुआ था मंगतू और कुछ कमाइ-उमाई भी कर ली थी। भीड़ कम होते ही दिल धक-धक करने लगा मंगतू का। नया दरबान उसे ही घूर रहा था फिर लम्बे कदम बढ़ा मंगतू की तरफ आया और कड़क आवाज में बोला,‘ कल से उधर बाईं तरफ बैठना। खबरदार गेट के पास नहीं।’

इससे पहले पुराने दरबान के प्रति खीज तो आती थी लेकिन कभी भी डरा नहीं था मंगतू, पर आज ना जाने क्यों सहम गया।

तभी मंगतू ने देखा, एक साहब-मेमसाहब को गेट से निकलते देख हड़बडा़ कर सलाम ठोक रहा है नया दरबान। साहब ने लापरवाही से एक सौ का नोट उसकी ओर बढ़ाया। फिर से सलाम ठोका दरबान। और मंगतू ने अवाक होकर सुना…

‘ सारी सर मैं टीप नहीं लेता।’
‘ अरे भई ले लो आज मैं बहुत खुश हूं।’
‘ नो सर।’ दृढ़ स्वर में बोला दरबान।

तभी मेमसाहब चीढ़ कर बोल उठीं,‘छोड़ो ना जी चलो।’

साहब भी चीढ़ जाते हैं,‘ घमंड तो देखो इसका।’ और उस सौ के नोट को मंगतू की ओर फेंकते हुए चल देते हैं।

आदतन रूपये तो लपक लेता है मंगतू पर ना जाने क्यों सलाम ठोकने के लिए हाथ नहीं उठा पाता बल्कि होठों से अनायास ही बुदबुदाहट निकल पड़ती है,‘ सबको भिखारी बनाने में तुले रहते हैं साले।’

साहब-मेमसाहब जा चुके थे।

कुमुद