हब्बाडब्बा

By on October 24, 2014, in Laghu Katha

मैं लिखने के टेबल के पास बैठा जरूर था, पर कविता दो पंक्ति से आगे खिसक ही नहीं रही थी। शायद ड्राइंगरूम से आती एक भारी भरकम आवाज मेरी एकाग्रता को तोड़ रही थी-‘आर यू श्योर!‘डी’ को लाॅक कर दूँ! कम्प्युटर जी… मुबारक हो, आप बारह लाख…’

मैंनें कोशिश कर उधर से ध्यान हटाया और अगली पंक्ति के बारे में सोचने लगा। तभी पत्नी की तेज आवाज सुनाई दी -‘बिन्टू! …’ बिन्टू मेरा चैदह वर्षीय पु़त्र शायद बाथरूम में था, ‘… जैकपाॅट शुरू होने वाला है, जल्दी आओ! तुमने मैसेज भेजा था न?’ अन्त में पत्नी का स्वर धीमा होने पर, मैं समझ गया बिन्टू आ चुका होगा।

‘मैं तो रोज भेजता हू मम्मी। एक नहीं अलग अलग मोबाइल से चार पाँच मैसेज भेज देता हूँ। कभी ना कभी तो किस्मत चमकेगी ही।’

जैकपाॅट शब्द से मुझे मेरे किशोर काल की वह घटना फिर से याद आ गयी। शायद उस समय मैं भी बिन्टू के उम्र का ही था। एक मित्र के साथ नामकुम बाजार मुर्गा लड़ाई देखने गया हुआ था। मुर्गा लड़ाई देख कर बहुत मजा तो आ रहा था, पर थोड़ी दूर, एक दुसरे झूंड की ओर मेरी उत्सुकता थी। एक बांस की तरह लंबा और दुबला आदमी चिल्ला रहा था-‘आज जैकपाॅट का दिन है, एक का दो नहीं, ढाई मिलेगा! पहले आओ – पहले जीतो…’

मेरे मित्र ने कहा,‘वहाँ हब्बाडब्बा हो रहा है। देखोगे?’ मैंने तुरंत हाँ में सिर हिला दिया। एक काला तिरपाल का टुकड़ा जमीन पर बिछा हुआ था, जिस पर लाल लकीर से छः खाने बने हुए थे। अलग अलग चार खानों में लालपान, कालापान, चिडि़, ईंट और बाकी के दो खानों में सुरज और तारा बना हुआ था। वह लम्बा आदमी भीड़ के बीच में खड़ा होकर हाथ में पकड़े डिब्बे को जोर जोर से हिला रहा था, जिससे डमरू जैसी आवाज निकल रही थी – ‘फटाफट आओ, फटाफट लगाओ-एक का ढाई पाओ।’

मेरे मित्र ने कहा,‘इस आदमी को सभी ग्रेट गेम्बलर पुकारते हैं।’

भीड़ में शामिल लोग धक्कामुक्की कर हर खाने में रूपये रख रहे थे। साथ ही अपने लगाए रूपये को उंगली से दबा कर जमीन में उकड़ू बैठ जा रहे थे। एक समय उस आदमी ने डिब्बे को तिरपाल पर उलट दिया। दो बड़े बड़े पासों के उपरी हिस्से में लालपान और सुरज था। तिरपाल पर चिन्हित इन दोनों खानों को छोड़ कर, बाकी चारों खानों पर लगाए गये रूपयों को उस आदमी ने समेट लिया। और उन दो खानों में रूपये रखने वाले को ढाई-ढाई गुना बाँट दिया। और फिर से चिल्लाने लगा, फटाफट आओ, फटाफट…

थोड़ी देर में मुझे खेल समझ में आ गया। मैंने भी खेलने का मुड बना लिया था। तभी पुलिस के आ जाने से भगदड़ मच गयी थी। मैं भी मित्र का हाथ पकड़ कर भाग खड़ा हुआ था।

मैं आज भी उस लम्बे आदमी को टीवी पर देखता हूँ। थोड़ा हेल्दी और स्मार्ट दिखने लगा है। एक दिन पत्नी से कहा भी था-‘मैं इन्हें जानता हूँ।’

पत्नी खिलखिला कर हँस पड़ी थी। साथ में बेटा भी।‘आप भी ना…। इन्हें कौन नहीं जानता। ये सदी के महा…’

कुमुद