आशिक

By on October 25, 2014, in Poem

तर्ज-ए-ताजमहल
एक यादगार बनाने की
ख्वाहिश थी

ना जुदार्इ थी
ना जमीन थी
ना यमुना नदी

किराये के एक कमरे में
चार बच्चों के संग
मेरी मुमताज थी

पैसों की तंगी थी
रोज की खिटपिट संग
गिले-शिकवे थे

ना कब्र थी
ना संगमरमर
ना गम-ए-जुदार्इ

मैं शाहजहाँ तो बन ना सका
पर खुदा गवाह
मैं आशिक
दिवाना था
अपनी मुमताज का

कुमुद